Ek Lamha | TheDevSir

इस कविता को पढने से पहले, एक बात ध्यान में ज़रूर ले आईएगा, जो मैंने अभी अभी "राहत इन्दोरी साहब" से सीखी है, की अगर किसी का लिखा समझ आये तो वाह वाही दीजियेगा, और अगर ना समझ आये तो यह जान लीजिये की कोई बहुत बड़ी बात कह गया जनाब ..!! बहरहाल अगर आपको किसी के आने की उमीद बाकी हो और लग रहा हो जीवन के संघर्ष बढ़ चुके है, तो आप वैसे भी अपने आप को इस कविता में अवश्य ढूंढ पाएंगे ..!!


वक़्त महज़ एक रेत सा
फिसला जो यूँ हाथो से
रह गए चन्द लम्हे
युही छोटी छोटी बातों से


खो गया पल जो था मेरा
किसी और कि फिराक में
साथ रहा सिर्फ अंधेरा
इन उमीद भरी आंखों में


फ़क़त ढूंढता रहा मैं
खुद ही के अक्स को
कहा मिलेगा सुकून-खुदा
पूछता रहा हर शख्स को


राबता मेरा एक आईना है
जो नज़रे मुझसे चुरा रहा
कोई क्या छिनेगा खुशिया तेरी
तू खुद ही से है डर रहा


माशूक मिला ना कोई यहाँ
बेमतलब के रिश्ते बने है
बस एक उसी लम्हे की आस में
हम कड़वे घूट पीकर बैठे है


इस पल बस इतना ही अफसाना है
चुप रहना और देखते जाना है
वो आएंगे ज़रूर दिल देखने मेरा
उस लम्हे को मुझे, प्यार से सजाना है


रूह की आह निकली हलक से
बेखुदी में किसी को रहता होश कहा
एक दीदार बाकी है उसका
और किसी चीज़ का शोक कहाँ ।






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आपका
देव

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